मन उदासी तान आया;
आज किसका ध्यान आया!
नैन बेसुध, प्राण बेसुध
देह का हर रोम इस्थिर,
बोल न फूटे अधर से
जम गया; ज्यों, मोम इस्थिर;
कर्ण-पट हैं बन्द, जैसे
रसभरी रसना विरस है,
घ्राण वंचित सुरभि-सुधि से
और तन्द्रिल तन अलस है।
रीतते हैं इस तरह भी,
कब मुझे यह भान आया।
नैन खोजे रूप-छवि को,
प्राण पागल हैं मिलन को,
क्या अधर बोले किसी से
जी रहे हैं जिस जलन को!
मन अकेले चाहता है
सुर, सुधा, मकरन्द कोमल,
हो गई हैं किस तरह से
उँगलियाँ ये पल में रोमल!
प्राण के संकेत पर मन
काल-दिक् को छान आया।