मन
कुछ न कुछ
करता ही रहता है ।
मन करता है
पंखुड़ी बनूं
कली बनूंड
फल बनूं
अथवा
वह टहनी बनूं
जिस पर लगते हैं
पंखुड़ी
कली
फ़ल ।
और फ़िर करता है
बनूं भंवरा
सूंघूं फ़ूल
बेअंत
कभी करता है
बनूं रुत
केवल बसंत !
अनुवाद-अंकिता पुरोहित "कागदांश"