जला सको तो मन के दिये जलाओ तुम
क्या होगा माटी के दीप जलाने से।
आज देश में घिरा घना अँधियारा है,
नाव भँवर में डगमग, दूर किनारा है।
विपदाओं का बोझ ग़रीबी ढोती है,
महलों के भीतर आज़ादी सोती है।
कर पाओ तो कुटियों का शृंगार करो।
क्या होगा भवनों के द्वार सजाने से॥
आज बन गया हर अपराध तमाशा है,
भाई-भाई के शोणित का प्यासा है।
माली खुद उपवन को आज उजाड़ रहे
बेटे खुद माँ के दामन को फाड़ रहे।
भर पाओ तो मानवता की माँग भरो।
क्या होगा घंटे-घड़ियाल बजाने से॥
धूमिल है इतिहास स्वत्व-संघर्षों का,
हनन हो रहा नीति और आदर्शों का।
चौराहे पर नग्न न्याय की लाश पड़ी,
लिए अहिंसा हाथों में तलवार खड़ी।
कर पाओ तो दैन्य-तिमिर का नाश करो।
क्या होगा रजनी का तिमिर नशाने से॥
आज वतन की करुणा सिक्त कहानी है,
अबलाओं की भरा आँख में पानी है।
भूखा बचपन सड़कों पर है घूम रहा,
नंगा यौवन विष के प्याले चूम रहा।
काट सको तो जाल विषमता के काटो।
क्या होगा रस्मी त्यौहार मनाने से॥