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मन मारीच सा / दीपा मिश्रा

ये मन मारीच सा
खुद को बिना सोचे समझे
किसी के भी कहने पर
बदल लेता स्वरूप
फिर खुद को निहारता
स्वर्ण मृग के रूप में
अपलक
उसे भी मोह हो जाता
अपने अप्रतिम रूप पर
लुभाने लगता है औरों को भी
तृप्ति होती उसे
अन्य नेत्रों में भी अपने लिए
आकर्षण देख
एक पल को गर्वित होता
पर तभी अचानक
एक आहट-सी होती
और समय अपने वाण लेकर
उसे खदेड़ने लगता
वह भागता है इधर-उधर
पहले बस उसे यह
एक खेल लगता
पर थोड़ी ही देर बाद
उसे भान हो जाता
अपनी मृत्यु का
और तब तक वह
समय चूक चुका होता
न अपना स्वरूप पा सकता
न क्षमा याचना कर सकता
वह उलझ जाता है
अपने ही किए कर्मों में
अपने ही दिए वचन में
अचानक एक तीर चुभती है
वह कराहता है
ये कराह पश्चाताप की होती
जीवन भर किए
पापों की प्रायश्चित
एक बार संपूर्ण जीवन
आंखों के सामने नाच जाता
आतुर विकल डूबते नेत्रों से
उसे बस एक छवि दिखती
मोहवश दोनों हाथ स्वतः जुड़ जाते
शब्द हृदय नेत्र स्पंदन
सब एक हो जाते
अंतिम उच्छ्वास के साथ
बस एक नाम निकलता है
आह सीता