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मन मुझ को कहता है / अज्ञेय

मन मुझ को कहता है- मैं हूँ दीपक यह तेरे हाथों का
मुझे आड़ तेरे हाथों की, छू पावे क्यों झोंका!
राजा हूँ, ऊँचा हूँ- मुझ-सा नहीं दूसरा कोई;
फिर भी कभी न हो पाता हूँ साथ तुम्हारे मैं एकाकी-
सब विभूति जाती है खोई!
करों तुम्हारे हूँ फिर हूँ भी एक भीड़ में!
मेरा फीका-सा आलोक
डरते-डरते व्यक्त कर रहा तेरी मुख-छवि;
पर हा कितना छोटा है मेरा आलोक!
दूसरों का है भाग्य- सभी मिल दीपमालिका में साकार,
नील-अम्बरा तिमिर-शिखा को देते ज्वाला से आकार!

मुलतान जेल, 18 अक्टूबर, 1933