टिक टिक बजती हुई घड़ी से
क्या बोले मन सुगना
चाबी भर-भर दीवारों पर
टांगें हाथ पराये
छोटी-बड़ी सुई के पांवों
गिनती गिनती जाए
गांठ लगा कर कमतरियों का
बांधे सोना जगना
क्या बोले मन सुगना
पहले स्याही से उजलाई
धूप रखे सिरहाने
फिर खबरों भटके खोजी को
खीजे भेज नहाने
थाली आगे पहियों वाली
नौ की खुंटी रखना
क्या बोले मन सुगना
दस की सीढ़ी चढ़ दफ़्तर में
लिखे रजिस्टर हाजर
कागज के जंगल में बैठी
आंखें चुगती आखर
एके के कहने पर होता
भुजिया मूड़ी चखना
क्या बोले मन सुगना
साहब सूरज घिस चिटखाये
दांतों की फुलझड़ियां
झुलसी पोरों टपटप टीपे
आदेशों की थड़ियां
खींच पांच से मुचा हुआ दिन
झुकी कमर ले उठना
क्या बोले मन सुगना
रुके न देखे घड़ी कभी
तन पर लदती पीड़ा
दिन कुरसी पर रात खाट पर
कुतरे भय की कीड़ा
घर से सड़क चले पुरजे की
किसने की रचना
क्या बोले मन सुगना
टिक टिक बजती हुई घड़ी से