अकौआ के डोडे से
छितरे फायों-सी रही
स्त्री की ख्वाहिशें
जरा-सी हवा में
बस तितर-बितर...
लेकिन उसका मन
वो बीज हठीला
हर हवा के संग
तलाशता नई ज़मीं।
नहीं चाहिए उसे
भूमि जुती हुई
न खाद, न सिंचाई,
वो पथरीली दरारों में,
तपती रेतीली भूमि में
खोज लेता है नमी,
दृढ़ता कि जड़ों को
गहरे जमाकर भीतर
करता है पोषित अपना तन
और खिला लेता है
फूल संभावनाओं के...
कि ख़्वाहिशो के पंख
होते हैं नाज़ुक
पर मन रखता है
शक्ति अपरिमित।