मन के पार
नहीं होती है कोई नाव
वह तो मन के भीतर ही होती है कहीं
कभी स्थिर
कभी हिचकोले खाती
जैसे कि वह पानी हो
न कि लकड़ी का कोई तख़्ता
मन के इस तरफ़ भी
नहीं होती कोई पृथ्वी
वह भी मन में ही होती है कहीं
चाँद-तारे उगाती
कभी बुझी-सी भी घुप्प अँधेरी
मन ही दरअसल नदी है
यदि नाव है कोई पानी
यही है वह अँधेरा
जिसमें है बुझी-सी पृथ्वी बैठी