प्लास्टिक, पेट्रोल, मिट्टी तेल और कपड़े के साथ
गोश्त के जलने की बद्बू फैली हुई है
फरसगांव की फ़िजा में
समाज का बेहद वीभत्स, क्रूर, घिनौना चेहरा
सरेआम हो गया है नंगा
सुधीर दादौरिया और सगुना दादौरिया की शक्ल में
अखबार में यह खबर भी बिल्कुल वैसी
और उतनी ही छपी
जितनी और जैसी छपती रही है
आज से सैकड़ों-हजारों बार पहले
इससे ज्यादा कुछ हो भी नहीं सकता
क्योंकि अखबार के पास खबर से आगे
सोचने या लिखने के लिए
न तो समय है
न शब्द
और न ही संवेदना !
दूसरे ही दिन ममता दादौरिया के
जले हुए जिस्म पर
देश-विदेश की इतनी खबरें
इतनी परतों में आ चिपकीं
कि लोग भूल ही गए
कि कल ही ममता नाम की लड़की
दहेज के लिए जला दी गई
वे लोग भी भूल गए
जिनके घरों में हैं ममताएं
बावजूद इसके
एक अदृश्य संवाददाता मौजूद है इन दिनों
फरसगाँव में
जो जानना चाहता है
वे बातें
कारण
घटनाएं
जो रह गईं अखबार में छपने से
या जिसे जानने में चूक गए अखबार नवीस
फरसगाँव में बहुत सारे लोग थे
जो दहल गए थे इस घटना से
बहुत सारे लोग थे, जो बदल चुके थे भीड़ में
बहुत सारे लोग थे, जो गायब थे भीड़ से
बहुत सारे लोग थे, जिनमें मात्र उत्सुकता थी
बहुत सारे लोग थे, जिनकी संवेदनाएं मर चुकी थीं
बहुत सारे लोग थे, जो बारूद में बदल चुके थे
बहुत सारे लोग थे, जो बारूद में बदल चुके थे
बहुत सारे लोग थे, तो बहुत सारी बातें थीं
बहुत सारे लोगांे की
बहुत सारी बातों को जानने से पहले
जानना होगा उस घर को
जो ममता में रहता था
या जिसमें रहती थी ममता-
ममता के साथ
ममता के बराबर जला है यह घर भी-
इस जलकर मरे हुए घर को देखो
तो लगता है
ममता थी तो बोलता-बतियाता था घर
ममता थी तो राह चलते लोगों से गपियाता था
ममता थी तो मुस्कुराता था आंगन
सजता था रंग-बिरंगी रंगोली से
ममता थी तो पायल और चूड़ियों का
संगीत बजता था घर में
ममता थी तो खिलखिलाते थे घर के बर्तन
ममता थी तो चींटियों को मिलता था शक्कर
ममता थी तो भिखमंगों को मिलता था
मुट्ठी भर चावल, छुट्टे पैसे, दो मीठे बोल
ममता थी तो घर की हर चीज में थी रौनक
ममता थी तो घर के चेहरे पर थी जिंदादिली
गरज कि
ममता के होने से था घर का घर होना
एक ममता के न होने की तकलीफ तो
वह घर ही बताएगा
जिस घर में जलती है ममता
जलाने वाले क्या खाक बताएंगे
ममता के न होने से
अब कुछ भी नहीं है इस घर में
बल्कि बाहर बंद दरवाजे पर
लटक रहा है सील बंद ताला
जिसे लगा गया है थानेदार
लेकिन घर के बाहर
बहुत सारे लोग थे
तो बहुत सारी बातें थीं
मसलन (मार्फत सुधीर दादौरिया के मित्रों के)
-ममता का बाल विवाह था
-ममता कम पढ़ी लिखी थी
-ममता मोटी थी
-ममता खूबसूरत नहीं थी
-मां नहीं बन सकती थी ममता
-ममता के भाईयों ने कम दिया था दहेज
बहुत सारे लोगों की
बहुत सारी बातों में
शामिल नहीं था बहुत कुछ
मसलन (मार्फत फरसगांव में फैली हवा के)
ममता को भी चाहिए था सम्मान
ममता भी थी सहानुभूति की हकदार
ममता भी थी श्रद्धा-सेवा-संवेदनशीलता की मिसाल
ममता भी खटती थी दिन-रात
घर की सुख-शांति के लिए
स्त्रियों से नैतिक आचरण की उम्मीद पालने वाला समाज
ममता से भी रखता नैतिक आचरण!
बहुत सारे लोग थे
तो बहुत सारी बातें थीं ममता के पक्ष में
मसलन
ममता ने कभी नहीं कहा
जिसकी लंबी उम्र के लिए करती थी मंगल कामना
हर वक्त अश्लील अपशब्दों से करते थे संबोधित
ममता ने कभी नहीं कहा
जिन कदमों में झुकती थी
दिन-रात मारते थे ठोकर
ममता ने कभी नहीं कहा
कि पति का पतलून खिसकने से रोकने वाला बेल्ट
हर रात उसकी पीठ के साथ करता है रति
ममता ने कभी नहीं कहा
उसका बनाया हुआ खाना
बेस्वाद करार देकर ठोकर मार दिया जाता है
ममता ने कभी नहीं कहा
उसका पति आदमखोर, अय्याश, शराबी और क्रूर है
ममता ने कभी नहीं कहा किसी से
अपनी इच्छाओं, शौकों और सपनों के बारे में
ममता ने कभी नहीं कहा
उसे मारने के लिए रचा जा रहा है षडयंत्र
ममता ने जो कभी नहीं कहा
कहना चाहती थी वही सब
मिट्टी तेल, पेट्रोल, माचिस की एक तीली
और परिवार वालों की क्रूरता का शिकार होकर
जलकर पड़ी थी अस्पताल के बिस्तर पर ममता
उसकी आंखों में भय, दुख, घृणा और क्रोध का
मिला-जुला भाव तैर रहा था
अपने पति और पति की मां के लिए
चेक करने आया डॉक्टर
रो पड़ा सुनकर ममता की बात-
”डॉक्टर साब !
फरसगांव में किसी ने मेरे पैर का
नाखून तक नहीं देखा था
अब सारा गांव देख रहा है
तो बिना कपड़े के !“
भरी भीड़ के सामने
निरपराध-सा खड़ा था उसका पति
और सास कह रही थी
बचा लूंगी बेचकर पांच बीघा जमीन
कानून व न्याय की
तंग, संकरी और घुमावदार गलियों में
सैकड़ों चोर दरवाजे हैं
जिनसे होकर बच निकलता है हर बार अपराधी
यदि ऐसा न होता
तो पांच बीघा जमीन बेचकर
बचा लेने का दावा न करती
सगुना दादौरिया ( सुधीर दादौरिया की मां )
तो क्या सचमुच बच जायेगा सुधीर दादौरिया
तो क्या सचमुच बच जाना चाहिए उसे
तो क्या हर बार भाईयों का विश्वास हारता रहेगा ?
हारा हुआ विश्वास भी
हत्या का रास्ता अपना सकता है
क्योंकि चार भाइयों की
अकेली बहन थी ममता,
कोई एक चल दे जेल
मारकर सुधीर दादौरिया को
तो क्या फर्क पड़ता है
किस तरह बचाई जाय ममता
या ममता जैसी लड़कियों को जलने से
कौन सा रास्ता अपनाया जाए
कि आने वाले दिनों में
न जलाई जाए कोई ममता
क्या सोचते हैं आप ?
आपका सोचना इस वक्त
ममता के पक्ष में
आपका फैसला होगा
एक अदृश्य संवाददाता की रिपोर्ट है यह कविता
किसी अखबार के लिए नहीं
उन भाईयों के लिए
जिनकी बहनें हैं
उन मां-पिताओं के लिए
जिनकी बेटियां हैं
उन घरों के लिए
जिन घरों में रहती हैं ममताएं !
पुनश्च: मैं यह बताना तो भूल ही गया
अखबार के जिस पन्ने में
ममता दादौरिया के जला दिए जाने की खबर छपी थी
तीन दिन बाद ही
उसी कोने में
छपा एक वैवाहिक विज्ञापन
‘‘वधू चाहिए’’
जिसमें दहेज का कहीं कोई जिक्र नहीं था !