Last modified on 2 जनवरी 2010, at 02:49

मरण जल / पंकज पराशर

रात एक नदी की तरह बहती जा रही है
 
अंधेरों की बाढ़ बढ़ती ही चली जा रही है
लगता है गाँव में झींगुरों के अलावा और कोई नहीं,
 
उससे पूछो कि वह कौन है जो मेरे घर पर बुलडोजर चलवाता है
और अपने महल के हम्माम में पानी भरने के लिये वहां बाँध बनवाता है?
 
रात की इस नदी में बार-बार गूँज उठती है
उस आदिवासी औरत की आवाज़
जिसके मुँह में जब आवाज़ आई तो कहने के लिए
और कुछ भी न बचा उसके पास जो कुछ भी था वह
देश की जम्हूरियत की नज़र हो गया था
 
जिसका देश शहर नहीं जंगल है और सरकार कुदरत है
 
तुमने नगर में उसे जगह नहीं दी और जंगल भी उससे छीन ली
और बन बैठे उसके माई-बाप,
उसकी सरकार जिसकी उसे इत्तला तक नहीं दी कभी
 
-फिर किसने तुम्हें ये हक दिया कि तुम मुझे सभ्य बनाओ
मुझे जीना सिखाओ जैसे कि तुम हो सभ्यता की साबुन
और तहज़ीब के अलंबरदार मेरे वजीर-ए-आजम
सियार से भी गए बीते
 
तुम जो मेरे रहनुमा हो मेरे आका हो
और आज भी हो मेरे माई-बाप मुझे बताओ
कि वह कौन है जिसका नाम तक बताने में तुम्हारी ज़बान
इस कदर लड़खड़ाती है? और तुम्हारी त्यौरियां चढ़ जाती है
हमलोगों के ऊपर ही?
 
मेरा बेटा जब मरा तो उसके हाथ में तुम्हारा ही झंडा था
मेरे बाप को जो फाँसी हुई वह जुर्म तुमने किया था
और मैं विधवा आज इसलिए हूँ कि मेरे पति ने
तुम्हारा ज़रख़रीद गुलाम बनने से साफ़ इनकार कर दिया था
 
तुम्हीं बताओ तुम्हारे लोकतन्त्र को और क्या-क्या चाहिए मेरा?
 
मेरी आँखें, मेरा गुरदा, मेरे स्तन, मेरी जाँघें बताओ?
एक जंगल की औरत पूछ रही है तुमसे
तुम्हारे नगर के नागरिकों और जम्हूरियत के नये काजियों से
मेरे पूरे वजूद में सिवाए मरण जल के अब कुछ भी नहीं


रचनाकाल : 17 फ़रवरी 2007