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मरुथल में बदली / अज्ञेय

घिर आयी थी घटा नहीं पर बरसी चली गयी।
आँखे तरसी थीं
भरी भी नहीं छली गयीं।
दमकी थी दामिनी परेवे

चौंक फड़फड़ाये थे गोखों में
अब फिर चमक रही है रेत।
कोई नहीं कि पन्थ निहारे।
सूना है चौबारा।