जिस देववन्द्य भारतमाता के मस्तक पर,
गिरिराज हिमालय का किरीट जनगणमनहर।
तुम आदिपुरुष उसके आदर्शों के महान्,
पृथिवी के आदि काव्य के तुम नायक प्रधान।
अवतरित हो गए नारायण से नर बन कर,
भूभार निवारण करने तुम कल्मषतम हर।
आकांक्षणीयतम सत्य तुम्हारा व्यक्तिचरित,
करता अनेकधाजनमानस को उत्प्राणित।
मनसा-वाचा-कर्मणा सत्य के आराधक,
सर्वात्ममयी वैदिक संस्कृति के उन्नायक।
भवताप निवारण चरित तुम्हारा मंगलमय,
दिव्यातिदिव्य, अतिशय गौरवमय, महिमामय।
कर स्मरण तुम्हारे कथा प्रसंगों को क्षणभर,
हो जाता मन आनन्दमग्न सुध-बुध खोकर।
धरती के जीवन को सौन्दर्य बोध नूतन,
होता अन्तर्दर्शन में चिन्मय अभिव्य´्जन।
मानवता का आदर्श तुम्हारा महीयान,
करता जनयुग के पशु-मन को गतिपथप्रदान।
बोए जो तुमने धर्मकल्पद्रुम-बीज अमर,
फल-फूल रहे अद्यावधि इस भूमण्डल पर।
भगवत्ता का तुममें अशेष लीलविलास,
अन्तश्चेतन मानस को देता नव प्रकाश।
तुम परे विदित-अविदित दोनों से पुरुष-प्रवर,
करुणानिधान, तुममें अभिन्न भीतर-बाहर
वह अपराजित व्यक्तित्व तुम्हारा श्रेयस्कर,
भारत की लोकचेतना में है अजर-अमर।
करता दारुण दुख दहन तुम्हारा गुण-चिन्तन,
विम्बित मानस अम्बर में भास्वर स्वर्णकिरण।
स्थापित जो तुमने किया राज्य का कीर्तिमान,
अनुसरण योग्य वह क्या न आज भी ध्यायमान?
इतिहास सभ्यता का फैला जो दीप्तिमन्त,
दुर्दान्त हिमालय चूड़ा से छू दिगदिगन्त।
तुम उसक भूतभव्य के प्रतिनिधि ख्यातनाम,
वेदान्तपार, सम्यक्प्रशान्त, कृतभक्तकाम।
उत्तर-दक्षिण के धर्मसेतु रघुकुलनन्दन,
तुम पातक भ´्जन आर्षप्रणव, परमालम्बन।
तुम आत्मकाम, अन्तर-अन्तर में भ्राजमान,
सर्वात्मकाम, घनचित्प्रकाश, जानकी प्राण।
आसेतुहिमाचल भारत के आराध्य राम!
मानवगरिमा के मनदण्ड लोकाभिराम।
है नियम तुम्हारा स्वयं राम, आनन्दधाम,
सच्चिदानन्दघन, परमपुरुष तुमको प्रणाम।