पाठक जी रोटी खाइत छथि
दिन रहौ, रहौ वा राति
मुदा
पाठक जी रोटी खाइत छथि।
फगुआ दिन मलपूआ विधान
मिथिलाक प्रथा ई अछि पुरान
तेँ पाठक जी सोचै लगला
की करक थीक?
परदेशक बासी की करता?
परदेशक डर
कैचा कौड़ीक अभावक डर
की प्रथा पुरातन छोड़ि देथु?
ताहू मे एक समाजक डर
जकरे दलान पर जैब
सैह हँसि देत
तथा उपहास करत
‘‘हिनका नाड़ड़ि बहरैलनि हेँ
ई थिका प्रगतिवादी कट्टर
हिनका पछुआड़क पीपर पर
छनि प्रगतिवाद केर भूत
उठौने घाड़
टोकि नहिं सकइ छिअनि
नहिं तँ ई करथिन सोर
आबि कै मूड़ी देत मचोड़ि
हिनक हम सब चर्चे दी छोड़ि’’
अन्त मे बहरैलनि निष्कर्ष
आइ जड़िए मधुर केर खाइ
दुअन्नी सौं से कैलनि खर्च
बेचारे की करता?
भिनसर सँ काजक छूटि रहइ छनि
कतहु न सुख
ने अपने घर
ने अनके घर
सबतरि अछि हाहाकार मचल
ई सृष्टि विधाता व्यर्थ रचल।
सुति उठि कै भोरे पाठक जी
फूलक जोगाड़ मे छथि लगैत
तोड़थि तुलसी बेल पात, दूबि
अवितहि माजथि सराइ बाटी अपने हाथेँ
आ माँटि महादेवक पूजा लै
नित्य जाय बड़का मोहार सँ कोड़ि लबइ छथि
सानि तानि
चुटकी पर अँकड़ी बीछि
तखन शिव लिंग करथि निर्माण
राति दिन भगवानक सेवा मे लागल
जीवन छथि बितबैत
रहइ छथि यद्यपि ओ परदेश
रखइ छथि तैओ शालग्राम
और झोरी, घंटी रूद्राक्ष शंख सबटा संगहि
अरबा तुलसीफुल केर चाउर पर
चिन्नी अथवा गूड़
जाहि दिन जे भेटैत छनि
से लगवइ छथि भोग
बड़का उजरा शंख बजा कै
भोला सँ बरदान मङइ छथि
‘नित्य रही आरोग’
देखबा मे तैओ अबैत अछि
कण्ठक स्वर छनि पिपही सन
आ देह दशा तँ टिटही सन
से पाठक जी
फगुओ दिन मे
रोटी तँ खैब करता
तेँ पहिने ओ गूड़क संग पानि पीलइ छथि ता’
दूनू टा पेटहि मे मिलि कै
बनि जैतनि जा मलपूआ
बिजया पीने पाठक जी
गरजइ छथि
‘अच्छा हूआ’