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मलिन यह मन-मन्दिर, घनश्याम / हनुमानप्रसाद पोद्दार

मलिन यह मन-मन्दिर, घनश्याम!
टूटा, बिखरा, पंकपूर्ण, भर रहे कुजन्तु तमाम॥
नहीं खड़े होनेको भी है इसमें को‌ई स्थान।
फिर आसन-‌आचमन कहाँ ? हो कैसा अर्घ्य-स्नान ?
नहीं एक शुचि द्रव्य, दे सकूँ जो तुमको उपहार।
नहीं सरस वाणी जिससे कर सकूँ तनिक सत्कार॥
नहीं तनिक पूजा-सामग्री, नहीं योग्यता-लेश।
मिथ्या बना पुजारी डोलूँ, धरे कपटमय वेश॥
कैसे तुम्हें बुलाऊँ फिर, मैं कुमति कलुष-‌आगार।
उमड़ रहा दोषोंका जिसमें निरवधि पारावार॥
नहीं सरल विश्वास, करा दे जो दुःखमें चीत्कार।
नहीं अनन्य प्रपा, खुल पड़े जिससे करुणागार॥
नहीं दैन्य, जो करवा देता नीरव करुण पुकार।
जिससे तुम हो द्रवित दौड़ते सहज दयालु उदार॥
तुम ही जानो, करो उचित जो लगे तुम्हें, सरकार!
शील-सुभाव तुम्हारा करना पामर-जनसे प्यार॥