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मस'अला रूह का ... / सुरेश स्वप्निल

सियासत-सियासत<ref>राजनीति</ref> न खेला करो
सुख़न<ref>अभिव्यक्ति</ref> का सही वक़्त देखा करो

किसी दिन क़सम से, चले आएँगे
हमें यूँ न पैग़ाम<ref>संदेश</ref> भेजा करो

झुलस जाएँगी आपकी उँगलियाँ
न यूँ राख़ दिल की कुरेदा करो

शबे-वस्ल<ref>मिलन-निशा</ref> है मस'अला<ref>विषय</ref> रूह का
सरे-बज़्म<ref>भरी सभा में</ref> क़िस्सा न छेड़ा करो

जहाँ रूह को रौशनी मिल सके
उसी शह् र में अब बसेरा करो

ख़ुदा अब किसी पर मेह् रबाँ<ref>कृपालु</ref> नहीं
ज़ेह् न<ref>मस्तिष्क</ref> में नई सोच पैदा करो

इधर रिज़्क़<ref>आजीविका</ref> है तो इबादत<ref>पूजा-पाठ</ref> उधर
कहाँ तक सुबह-शाम फेरा<ref>चक्कर काटना</ref> करो !

शब्दार्थ
<references/>