मसनद
लगाने के बाद
सबको मसनद चाहिए
लेकिन
जगह इतनी बचती ही
कहाँ है
कि और मसनद लगाए जाएँ।
मसनद! मसनद ही है
जिस पर बैठता है कवि
और पसर जाता है
गद्दे पर
मसनद के सहारे,
तभी तो
कोई इसे
लोट भी कह देता है
मेरे पास नहीं रही
कभी कोई लोट
वही जिसे तुम
मसनद कहते हो
फिर मेरे लिए पसरना
तो बहुत दूर की कौड़ी है
यहाँ खड़े रहने की ही जगह नहीं है
जिसके लिए जद्दोजहद जारी है लगातार
पर
एक दिन पा ही लूँगा
अपने खड़े होने की जगह
तुम देखना कवि
उस दिन।