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महंगाई का पारा / मोहम्मद साजिद ख़ान

महंगाई की मार बड़ी है ।
पापाजी, कुछ करो हमारा ।।
जेब-खर्च तो और बढ़ाओ,
इतने में अब नहीं गुज़ारा ।।

हुई हमारी जेबें ख़ाली ।
गुल्लक पीट रहा है ताली ।।
बस, नोटों की बात कीजिए,
सिक्कों का अब नहीं सहारा ।।

चाट-पकौड़े मन ललचाएँ ।
चीज़ें सारी हमें चिढ़ाएँ ।।
कितना तो समझाया, पापा !
नहीं मानता मन बेचारा ।।

लगता है अब सारे सपने ।
होने नहीं एक भी अपने ।।
चढ़ता ही जा रहा रोज़ ही,
महंगाई का देखो पारा ।।