पूर्णिमा का चांद !
स्निग्ध ज्योत्सना
मन भावन समां
कहीं नहीं शोर
शान्त, क्लांत जग सारा
दिवा की थकान मिटाने में निमग्न
मधुर सपनों की दुनिया में खोया हुआ ।
चांदनी की सौम्य प्रखरता
पयोदों से आंख मुंदौल खेलती हुई
विस्तृत समतल धरा पर बिखरी हुई
उर्मियों पर छिटकी हुई
पादपों, पत्तियों पर छाई हुई
सुहानी रात की कैसी मोहकता बनी हुई ।
कैसी महकती रात !
रात की रानी की खुशबू से
वातावरण महक उठा है –
सुगंधित उपनव
सुवासित पवन
हर्षोल्लसित मन
आनन्द-विभोर कण-कण
कैसा मधुरिम जीवन!
स्निग्ध आलोक छटा से
विभाषित निशि
विशिष्ट शोभा लुटाती हुई
स्वच्छ सुगंध फैलाती हुई
सोये जन को जगाती है
जगो जन को सुलाती है ।
महकती रात की
मुस्कराती प्रकृति
दिव्य ज्योत्स्ना
अनुरंजित दिशाएं
सुरभित समीर
शीतल समां
मनभावन वातावरण
जगाते स्मृतियां
उभारते भावनाएं
देते प्रेरणाएं
सोचने को
कल्पना करने को
अभिव्यक्त करने को
शान्त मस्तिष्क से ।
कवि बैठकर एकान्त में
महकती रात में
सुवासित वातावरण में प्रेरित होकर
कल्पना की दुनिया में खोकर
रचता कविताएं
कलम से नहीं
मस्तिष्क से नहीं
हृदय से ।