एक दिन
चला जाऊंगा मैं
जैसे चले गए कल
कुलछतर काका।
सूनी कर गए चौपाल
फीका पड़ गया
हथाई का रस,
जिसमें खींचते-खींचते
हुक्के का कश
समझा देते थे हमें
मेहनत का मोल।
और महीने भर पहले
पीरदान ताऊ
जो दुनियाभर की खबरों का
भर पिटारा
हाजिर हो जाते थे
सुबह-सुबह।
हर अनपढ़-अज्ञानी को
बड़े सरस-सहज अंदाज में
समझा देते थे
दुनियाभर की राजनीतिक हलचलें।
किस्से-कहानियां सुनाकर
हमारा जी बहलाने वाली
जमना नानी
और आखी उम्र
लोकगीतों के
संस्कार बांटकर चली गई
कल्लो काकी
कुछ भी तो स्थाई नहीं है यहां।
कल तक
जो गुलज़ार रखता था
गलियों को
अपनी मृदुलवाणी से
वह सुरजा ताऊ
कहीं किसी कोमल-दिल के कोने में
गुनगुनाएगा कुछ दिन अपने दूहे
और फिर
वह भी अलोप हो जाएगा
जैसे अलोप हो गए
उम्रभर पेड़ लगाने
और उनको
अपने पसीने से सींचने वाले
लादू दादा।
अब
कितनेक दिन और चल पाएंगे
मोहन बाणिए की मसखरियों के किस्से?
कुलछतर काका की हथाई,
पीरदान ताऊ की खबरें,
जमना नानी की कहानियां,
कल्लो काकी के लोकगीत,
सुरजा ताऊ के दूहे
और लादू दादा के रूंख?
तब तो मरकर भी
दिलों की बस्तियों में
आबाद रहता था इंसान।
गुलज़ार रहती थीं गलियां
उनकी यादों से,
महका करते थे मोहल्ले
न जाने
कितने-कितने बरसों तक!
2009