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महाकवि सुमन सूरो / अमरेन्द्र

वह सुरेन्द्र था और सुमन भी, चम्पा का वह मन था
जोड़ रहा था अंगदेश के टूटे-बिखरे सपने
वर्षा की खातिर कैसा वह जेठ लगा था तपने
तपे जेठ पर नाद विकट करता सावन का घन था ।

क्या कुछ उसने नहीं दिया, वह औघड़ था भाषा का
मुट्ठी भर जब राख उठाई, मुट्ठी में कंचन था
नजर उठाई किसी ठूँठ पर, ठूँठ वही चन्दन था
जब पाया, मंदार ही पाया: रत्ती भर माशा का।

कितना सूना ऋषि का आसन, अंगर्षि के बिन है
नहीं गरजते मेघ गगन पर, बिजली नहीं ठनकती
प्राणों की गति, रुधिर-धार चलती है रुकती-रुकती
भादो आने वाला ही था, आया यह आसिन है ।

लगता कोई खींच ले गया मणि को अंगमुकुट से
चुरा ले गया कौन कमल को पूजारत संपुट से !