महानगर के बाज़ारों में
गिरह काटती धूसर सँध्या ।
स्वेद-सिक्त धकियाते चेहरे
रुद्ध राह है, पग पथराए
रक्त-जात सम्बन्धों को भी
रहे बाँट गूँगे चौराहे
यहाँ रोज़ ईमान ख़रीदे
बेच झील पेशेवर सँध्या ।
दिशा-हीन अन्धी भीड़ों में
रहा खोज क्या निपट अकेला
लुटा राह में बंजारों-सा
गया छूट पीछे वह मेला
सूख गीत के अँकुर जाते
भूमि नागरी ऊसर वँध्या ।
बनी बेड़ियाँ हैं अनदेखी
वर्ण-गन्ध की मधु छलनाएँ
लिए वंचना का बोझा हम
कहाँ-कहाँ की ठोकर खाएँ
विहग फाँस कर विश्वासों के
पंख कतरती निष्ठुर सँध्या ।