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महान्ध्रुव / महेन्द्र भटनागर

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  सुनीति और सुरुचि थीं
  राजा उत्तानपाद की दो रानी,
थी प्रिय अधिक सुरुचि राजा को
  इससे वह करती रहती थी मनमानी।
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ध्रुव की माँ थीं सुनीति
और सुरुचि-पुत्र थे उत्तम,
दोनों शिशु खेला करते
थे राजा को प्रिय-सम !
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एक दिवस शिशु उत्तम को
  गोद लिए खेलाते थे राजा,
  और अचानक तभी वहाँ आये ध्रुव
  देख, लगे चढ़ने अंक पिता के
  उत्तम बोले —
‘आ जा !’
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  पर, रानी सुरुचि वहीं बैठी थीं,
  जिनके भय से
  ले न सके वे ध्रुव को
  गोद सदय से !
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  सौत-पुत्र ध्रुव से
ईर्ष्या से बोली गर्वीली रानी —
  ‘हे ध्रुव !
  तुमने इतनी-सी बात न जानी
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  हो तुम राजा के पुत्र सही
पर, हो न योग्य राज्यासन के
यदि पाना हो राजा की गोद तुम्हें,
तो जन्मो फिर से मेरे कोखासन से।’
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खा चोट हृदय पर
रानी के कटु वचनों की,
  बालक ध्रुव
  तत्काल लगे रोने
साँसें भर-भर !
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  राजा मौन रहे
मानों ध्रुव हो पुत्र न उनका,
इतने अधिक सुरुचि के थे वश में
इतना अधिक उन्हें था उनका डर।
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आहत ध्रुव रोते-रोते
अपनी माँ के पास गये फिर,
माँ ने बेटे को
दुलराया, सहलाया,
  रोने का पूछा करण,
पर, ध्रुव ने नहीं बताया कुछ
केवल रोते रहे
झुकाए सिर !
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इस पर
समझायी सारी बात दासियों ने,
सुन
ध्रुव-माँ भी धीरज छोड़ लगी रोने !
  फिर दुख से बोली —
‘बेटा !
यह दुर्भाग्य हमारा है,
होनहार के आगे
अरे, न चलता कोई चारा है !
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  पर, तुम हिम्मत मत हारो,
कुछ ऐसी युक्ति विचारो
  जिससे पाओ ऊँचा पद
  अचल-अटल
  ऐसा कि जहाँ से
  हिला-हटा न तनिक भी पाये
देव दनुज मानव बल।’
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फिर माँ ने ध्रुव को युक्ति बतायी
  ‘बेटा ! मेरे मत में
  सब से ऊँचा-सत्य जगत में।
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जिसने सत को पाया
उसका ही यश
सब लोकों ने गाया!
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तुम भी सत्य उपासक बन
पा सकते हो वह पद
जिसके आगे तुच्छ
महत् राज्यासन!
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सुन चल पडे तभी बालक ध्रुव
करने पूरी माँ की बात,
भाग्य बदलने अपना
मधुवन में किया उन्होंने
तप दिन-रात!
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पाना सत्य —
यही थी बस एक लगन,
सदा इसी में
डूबा रहता उनका मन !
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सत्य ज्ञान की ज्योति जगाना,
अज्ञान-तिमिर को दूर भगाना।
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बना हुआ था लक्ष्य यही,
पाना था उनको तथ्य यही।
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पढ-लिख कर,
गुरुओं से सुनकर,
औ' जीवन में अनुभव कर
बुद्धि परिश्रम से
जिसको पाकर छोडा,
ध्रुव ने बचपन से ही
जीवन की सुख सुविधाओं से
मुँह मोड़ा !
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तभी जगत में
ध्रुव का नाम हुआ,
ज्ञान-ज्योति से ज्योतित
उनका धाम हुआ,
ज्ञानी बनकर दुर्लभ पद पाया
जो जग में ध्रुव-पद कहलाया !
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पूर्ण ज्ञान पाकर
ध्रुव लौटे अपने घर !
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राजा ने पहचानी अपनी भूल बड़ी!
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आशीष-स्नेह देने
सुनीति-सुरुचि खडीं,
स्वागत करने जनता उमड पडी !
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देख प्रजा का प्रेम तोष,
उत्तानपाद ने ध्रुव को
सौप दिया साम्राज्य कोष।
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पर, ध्रुव
कोरे ज्ञानी बनकर नहीं रहे
जनहित अगणित काम किये
औ कष्ट सहे।
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माँ की आज्ञा से
आदर्श गृहस्थ बने।
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जन-पीड़क यक्षों को
दंडित करने
भीषण युद्ध किये।
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विजयी
जन-प्रिय ध्रुव ने
वर्षों तक राज्य किया!
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जग से जो कुछ पाया
वह सब जगे हित
कर दान दिया!
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माना
नहीं आज हैं ध्रुव-ज्ञानी,
पर है
उनके यश की शेष कहानी
जिसको
घर-घर में कहती
माँ या नानी !
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उत्तर नभ में
जो सबसे चमकीला स्थिर
तारा है,
लगता जो हम सबको
बेहद प्यारा है —
वह
अद्भुत बाल-तपस्वी
ध्रुव का घर है !
वह
जन-रंजक सम्राट
तरुण-ध्रुव का घर है !
वह अनुपम ज्ञानी और विरागी
ध्रुव का घर है !