Last modified on 22 मई 2011, at 22:07

महापाखंडी हवा / कुमार रवींद्र

सुनो, धूर्ता है बड़ी यह
                सुबह की ठंडी हवा

ठूँठ में भी यह
जगाना चाहती है ख़ुशबुएँ
उधर पिछली गली में
हैं उठ रहे अब भी धुएँ

रात भर थी रही
          इसकी बहन रणचंडी हवा

मुँह-अँधेरे जग गई थी
अब ज़रा अलसा रही
उधर सूखी झील में है
ख़ून की धारा बही

धर चुकी है रूप कितने
महापाखंडी हवा

अभी सूरज को जगाकर
लाई थी - वह सो गया
उधर कौव्वा गा रहा
अंदाज़ उसका है नया

हो गई है
शाह की मीनार की झंडी हवा