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महाभिनिष्क्रम / वीरेन्द्र कुमार जैन

मैं तुम्हें जाते हुए देख रहा हूँ :
किस क़दर निर्लक्ष्य है तुम्हारा ये चलना...!
जहाँ इस क्षण तुम जा रहे हो,
वह तो महज़ एक बहाना है :
यहाँ और कहीं जाने को नहीं है,
तो वहीं चले जाते हो, जहाँ जा रहे हो...!
कैसी अनिश्चिति का विषाद है इस जाने में :
क्योंकि वहाँ किसी के मिलने पर भी,
मिलन अनिश्चित है :
एक ऐसा मिलन, जो किसी भी क्षण
अन्तिम विच्छेद का साक्षात्कार करा देता है :
जो अन्तिम रूप से अकेला कर देता है...!

छाती के आरपार बिछी छाती
केवल अपनी ही है, अपने ही लिए है,
इसका यक़ीन नही होता है :
उसमें कसकने वाला संवेदन और किनारों में
कब भटक जाता है, तुम्हें क्या मालूम...?
उस बहुत महीन और नितान्त अपनी लगनेवाली
प्यारी आवाज़ का दरद,
कब किसी और के लिए हो जाएगा,
यह उस आवाज़ को भी नहीं मालूम...!

इसी से जब तुम्हें जाते हुए देख रहा हूँ,
तो लगता है कि तुम कहीं जा नहीं रहे हो,
किसी के पास नहीं जा रहे हो :
मगर तुम अपने मुक़ाम पर भी नहीं हो :
स्थिति और गति से परे के इस अभियान को
क्या नाम दिया जाए...?
पृथ्वी के नव-नवीन सर्जन भी
तुम्हें मात्र सीमा के दोहराव लगते हैं :
तुम्हारी बाँहों की चाह के उत्तर में
आकाश भी छोटा पड़ रहा है...!

परिभाषाओं, विधि-निषेधों, विरोधों,
त्यागों, इनकारों से निर्देशित
निर्वाण और भगवान भी
तुम्हारे इस अभियान में
पीछे छूट गए हैं...!
मरण से भी अधिक भयावने विजन वीरानों के
तुम यात्री हो :
कौन हो सकता है इस पन्थ का संगी...?

एक अन्तहीन और विराट प्रश्न की धुरी से
आरपार बिंधे हृदय का यह महाभिनिष्क्रमण है
महाकाल के मस्तक पर
जो सुदर्शन चक्र, कैवल्य और क्रूस
के पार चला गया है।
तुम्हारी गतिमान पीठ के इस महा अवकाश में
सृष्टि सिमट रही है,
तुम्हारे गतिमान मस्तक के
इस परात्पर एकाकीपन में
वीतराग केवली की समाधिलीन आँखों से
आँसू फूट आए हैं :
सिद्धालय की अर्ध-चन्द्राकार शिला पर
ये किस अनन्या के उरोज उमड़ आए हैं,
मनुष्य के चिर प्यासे ओठों की
प्रतीक्षा में...!



रचनाकाल : 21 मई 1969