सत्तावन तुम्हारी सत्ता से ही त्रिभुवन,
देश-काल के चक्षुताल का महाआयतन।
होता प्रकट प्रलय में तुमसे ही वैश्वानर,
ज्वालामुखियांे में उल्काज्वाला भड़का कर।
सर्वकामप्रद विश्व तुम्हारा अन्तरदर्पण,
कानन चित्राभरण, हिरण्मय रवि-शशि लोचन।
तरुणारुण वर्णानन, प्राण प्रभ´्जन भीषण,
घेर सौरमण्डल को करते महाघोर स्वन।
उड़ते गरुड़ समान वेग से ताम्रनील धन,
तड़ितपताका फहराते पंखों से शोभन।
वायुभार के तलप्रदेश को परिनादित कर,
उड़ती कम्पन लहर-लहर पर उमड़-उमड़ कर।
छा जाती काजल की आँधी लपटों में जल,
दीर्घवृत में चलते तुमसे ही शनि-मंगल।
गाते अन्तर की वीणा में मीड़-तान भर,
गिरि के कण्ठ देश में तूर्यनिनादी निर्झर।
अग्निबाण से पुच्छलतारे मर्म दीर्ण कर,
आग उगलते गगन-गवाक्ष-विवर के भीतर।
दहनशील उद्गार तुम्हारा महाभयंकर,
धधकता लावा का झरना सर्गप्रलयकर।
महानाद से लहराने लगता भूमण्डल,
जैसे वाताहत हिल्लोलित सागर का तल।
ज्योतिष्मान तुम्हारी महिमा में जड़-चेतन,
तुमसे भिन्न न कोई अन्य परम आलम्बन।
होती है सम्पन्न भूमिका महाकाल की,
दग्ध दृष्टि से वृष्टि लाल अंगारज्वार की।
महारास चल रहा तुम्हारा देवि, निरन्तर,
भिन्न-अभिन्न रूप में भुवनकोश के भीतर।