महाश्वेवता
गल्प नहीं लिखतीं ।
महाश्वेता रचती हैं
आदिम समाज की करुणा का महासंगीत ।
वृक्षों की,
वनचरों की,
लोक की चिंताओं का अलापती हैं राग ।
महाश्वेवता की अनुभूतियाँ
जब ग्रहण करती हैं आकार
वृक्षों का कंपन,
वनचरों का नर्तन,
लोक का वंदन
सब कुछ समाहित होता चलता है
उनकी रचनाओं में ।
महाश्वेता नहीं बाँचती अपनी प्रशस्तियों
या अपने दुःखों के अतिरंजित अध्याय,
वे घूमती हैं अरण्यों के बीच...
निःशंक,
प्रकाशपुँज की तरह,
जगाती हैं प्रतिरोध की शक्ति
निर्बल, असहाय, आकुल मनों में ।
देती हैं आर्त्तजनों को आश्रय
घोर हताशा के क्षणों में ।
महाश्वेता
अपने समय की सच्चाई को
मिथकों में ढाल कर
जोड़ती हैं स्मृतियों से,
परंपराओं से,
पुराकथाओं से ।
द्रोपदी मझेन,दूलन गंजू,
चण्डी वायेन, श्रीपद लाल,
जटी ठकुराइन
नहीं हैं महाश्वेता की कल्पना के पात्र,
हाड-मांस वाले जीते जागे चरित्र हैं वे
इसी चराचर जगत के ।
महाश्वेता का लिखा,
महाश्वेता का कहा,
महाश्वेता का जिया
हर शब्द...
हर कर्म...
सत्ता के अनाचार से सीधा टकराता है ।
वह लोक-रंजन का नहीं,
लोक-चिंतन का रास्ता दिखाता है ।