शत पंद्रह की बात है, काशी उनका धाम
घर में पले जुलाह के , कपड़े बुनना काम।
लोढ़ा – पत्थर प्यार का, खूब जमाया रंग
जो वाणी वो बोल गये, सभी रह गये दंग।
जाति – मजहब धर्म नहीं, कर्म – मर्म है योग
विधना ऐसा लिख गया, ये सब था संयोग।
अक्षर ज्ञान कुछ था नहीं, फिर भी बने महान
बड़े – बड़े ज्ञानी करे , इनका ही गुणगान।
साधक संत कबीर की, वाणी है अनमोल
अगर अमल वाणी करें , हो जीवन की मोल ।
आत्म मंथन ज्ञान है, मन मंथन है ध्यान
ऐसे भगत कबीर थे, हम सब के बरदान।
कबिरा खड़ा जहाँ हुआ, वहीं जम गये लोग
वाणी सुन गदगद हुए, भागे मन के रोग ।