57
नत है शीश
करता हूँ वंदन
तेरा ही सुख माँगूँ ,
प्रतिपल मैं
करूँ हित चिंतन
साँसों में बसाकर।
58
रंग या रूप
यौवन की ये धूप
माना सब नश्वर,
मन के भाव-
न आयु -लिंग भेद
गङ्गा नहाके आए।
59
कुछ न करो
कभी पल दो पल
करो जो सुमिरन,
माँगना तुम्हीं
मिलन का प्रभात
सुख के दिन-रात।
60
लौटना कभी
किस गाँव की गली
मुझे पता ही नहीं
मैं बनजारा
मेरा न कोई गाँव
घर-द्वार भी नहीं।
61
उजाड़ वन
हमने बसाए थे,
फूल भी खिलाए थे
भूलके कभी
तोड़ी न कोई कली
क्या यही ग़ुनाह था!