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माँ / भाग १५ / मुनव्वर राना

तो क्या मज़बूरियाँ बेजान चीज़ें भी समझती हैं
गले से जब उतरता है तो ज़ेवर कुछ नहीं कहता

कहीं भी छोड़ के अपनी ज़मीं नहीं जाते
हमें बुलाती है दुनिया हमीं नहीं जाते

ज़मीं बंजर भी हो जाए तो चाहत कम नहीं होती
कहीं कोई वतन से भी महब्बत छोड़ सकता

ज़रूरत रोज़ हिजरत के लिए आवाज़ देती है
मुहब्बत छोड़कर हिन्दोस्ताँ जाने नहीं देती

पैदा यहीं हुआ हूँ यहीं पर मरूँगा मैं
वो और लोग थे जो कराची चले गये

मैं मरूँगा तो यहीं दफ़्न किया जाऊँगा
मेरी मिट्टी भी कराची नहीं जाने वाली

वतन की राह में देनी पड़ेगी जान अगर
ख़ुदा ने चाहा तो साबित क़दम ही निकलेंगे

वतन से दूर भी या रब वहाँ पे दम निकले
जहाँ से मुल्क की सरहद दिखाई देने लगे