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माँ / भारत यायावर


भीतर टटोलता हूँ

मिलता है एक शब्द--माँ!

जिससे दूर हूँ

माँ रोज प्रतीक्षा करती होगी

चिट्ठी भी नहीं लिख पाता

सोचता हूँ-- कल ही चला दूँगा गाँव

बिना कुछ लिए-दिए

किसी से कुछ नहीं कहूँगा

सुबह उठूँगा और बासी मुँह

बस पकड़ कर चला जाऊँगा गाँव

वहाँ माँ तो है

मेरा बचपन तो है

और हैं मेरी चुहलबाजियाँ

यहाँ महानता का नकाब चेहरे पर डाले

दम घुटता रहता है

एक दुख काँटे की तरह

भीतर-ही-भीतर करकता रहता है

लिखने के लिए जब भी टटोलता हूँ भीतर

सिर्फ़ एक शब्द मिलता है--माँ

जिससे दूर हूँ


बचपन से माँ अपनी आहुति देती रही

होम करती रही अपना जीवन

और हम भाई-बहन बड़े हुए

बड़े हुए और दूर हुए

इतनी दूर कि भीतर माँ

सिर्फ़ एक शब्द के रूप में बची रही


(रचनाकाल : 1990)