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माँ का नाटक / प्रेमरंजन अनिमेष

सीधी-सादी थी माँ
हमें गर्भ या आँचल में लिये हुए भी
सारे काज सलटाती
सारा घर सँभालती

पिता भी थे भले और सरल
घर से अक्सर दूर होना होता था उन्हें काम के लिए

अवकाश में आया करते थे वे
कई बार लम्बे अंतराल के बाद

ऎसे में कभी
माँ एक नाटक करती

वह मुझे लेकर छुप जाती
पीछे वली माटी की कोठरी में

इस पिछली कोठरी में अपने समय
दादी रहा करती थीं
माटी के कई बरतन थे इसमें
उन्हीं में से माँ
तीसी के लड्डू या अपने हाथ का बना कुछ और
बड़ी दीदी से भेजती पिता के लिए

यह सिखाकर कि कहे उन्हें
माँ मामा के यहाँ चली गई है छोटे को लेकर

छुपना
माँ के लिए
जाना था !

जल्दी ही हममें से कोई
किसी मुश्किल से उलझ जाता
कोई चीज़ किसी से टूट जाती
या किसी की हँसी छूट जाती

और निकल आना पड़ता माँ को
अपने नेपथ्य से !