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माँ का रोना / कौशल किशोर

जब से देखा है
मैंने माँ को रोते हुए देखा है

मेरी यादों में बसा है
मां का रोना
बहुत दूर से आती
उतनी ही दूर तक जाती
घुटी-घुटी आवाज
अन्तर्मन के किसी कोने में
टूटे बरतन की तरह
आज भी बजती है

बचपन के दिन थे
वह बच्ची थी
बेटी थी
बहन थी
घरोंदे बनाती थी
तीज-त्योहार और सोहर के गीत
वह झूम-झूम कर गाती
लहर-लहर लहराकर ऐसे नाचती
कि उसे नहीं रहता अपनी सुध

वह डांट सुनती
बात-बात पर झाड़-मार खाती
और इतने जोर से रोती
कि उसका रोना मशहूर हो गया

वह बड़ी हुई
रसीली जवान
शादी हुई
बच्चे हुए
घर-आंगन गुलजार हुआ
बाबूजी की तरक्की हुई
खुशहाली आई

पर घुट-घुट कर उसका रोना जारी रहा
वह बैठ जाती किसी कोने में
मुंह ढक कर रोती रहती
इसे रोने की कला की प्रौढता कहिए
कि अब आवाज नहीं होती
आंसुओं से भरा होता उसका चेहरा

मै नहीं देख पाता माँ का यह हाल
आंसुओं से सने बाल
भींगा आंचल
उससे लिपट जाता
जाकर चिपट जाता
वह सीने से लगा लेती
अपनी नन्हीं-नन्हीं अंगुलियों से
उसके आंसू पोछता
खुद भी रोने लगता
वह कहती-
क्यों नहीं जल्दी बड़ा हो जाता
तू ही मेरा दुख हरेगा
दलिद्दर मिटायेगा

और मैं बड़ा हुआ
घर में बहू आ गई
वह माँ के पांव छूती थी
उसकी तरह और भी थे
जो उसके पांव छूते थे
उसका ओहदा ऊंचा हुआ
वह दादी बनी
घर-आंगन किलकारियों से भर गया

फिर भी माँ का रोना नहीं रुका
वह रोती
छिप छिप कर रोती
घर के पिछवाड़े
किसी कोने में
दीवार की ओर मुँह किए
चेहरा ढक कर रोती
घुट-घुट कर ऐसे सुबकती
कि रोते हुए पकड़ी न जाय
और पकड़ी गई तो
सबसे सुनती झाड़
मुझसे भी-
' अम्मा क्या लगा रखा है
जब देखो तब...'
वह कुछ झण मेरी ओर देखती
फिर अपना चेहरा ढक लेती
कर लेती पीठ मेरी ओर

शीशे की तरह दरक गई थी
वह उम्मीद
जो उसने पाली थी