माँ! तुम हो
जीवन तपन में गुलमोहर छाँव सरीखी!
तुम्हें लिखना असंभव है
तुम्हे बस जिया जा सकता है
यहाँ इस वक़्त लिखते हुए भी
गूंगे केरी सरकरा, खाइ और मुसकाय
की ही तर्ज़ पर
मौन में तुम घुली हो और मैं चुप हूँ
पर लिखना एक तसल्लीबख्श एहसास भी तो है!
सुनो माँ!
कुछ ऐसी हो तुम
संतति पर अकूत विश्वास रखने वाली
बातों ही बातों में मौसम विभाग से भी पहले
आँधियों की आशंका जता सचेत कर देने वाली
और अक़सर स्वयं उनके आगे वज्र-सी खड़ी हो जाने वाली
इसी भाव के कारण ही तुम्हें कभी दुर्गा कहा गया होगा, शायद!
जिसे लिखते हुए क़लम रुआँसी हो जाए
और आखर गीले
जिसे देखते हुए आँखों में पावित्र्य उतर आए
और हाथों में इबादत की मुद्रा
जिसकी छाँव सुकूनबख़्श हो
जिसे पढ़ते हुए कॉर्निया पर पनीली परत चढ़ जाए
बस ऐसी ही तो कुछ होती है माँ!
वक़्त की पगडंडियों पर लाल किताब-सी मार्गदर्शिका
पिता के सान्द्र प्रेम की तनु प्रतीक
सहूलियत और सलाहियत की जीवंत छब
कौन भला?
बस माँ !
माँ के लिए जितना लिखा जाए
उतना कम है
सदा धरा-सी ही लगी हैं वे मुझे
हर रूप में , हर वय में और अपने हर अंदाज़ में
धरित्रि से साम्य
उनका क्षेममयी, प्रेममयी और वसुधा भाव है
और नज़र और संदर्भ की ही तो बात है
कहीं यही पोषिता हैं तो कहीं यही शोषिता !
दिन विशेष में कैसे बाँध दूँ
उसकी सीखों को
उसकी सतरंगी धज को
जब हर साँस और आह में
जब हर घड़ी में
केवल माँ ही शब्द घुलता है
माँ! तुम ससीम होकर भी नि:सीम हो
फ़िर कैसे सीमित कर दूँ तुम्हें आख़िर
मौसम, महीने, दिन और समय के
माप की इन पारंपरिक इकाइयों में !