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माँ बकती है / पवन चौहान

बेशक
माँ बकती है
खूब बकती है
पड़ोसियों को
अपनों को भी
मुझे लगता है बुरा
बहुत बुरा

पर क्या गलत करती है वह
अगर आता है गुस्सा उसे
अपने सास-ससुर पर
इस बात के लिए कि
नहीं मिला उसके परिवार को
उनके हिस्से का
पुश्तैनी जमीन का टुकड़ा अभी तक
उसके बाल पकने तक भी नहीं
बिना किसी गलती के

बकती है वह
सड़क के साथ बनने वाली कूल्ह में
बेबजह टांग अड़ाने वालों पर
गहने बेचकर खरीदे
उसके जमीन के टुकड़े पर
अपना हक जमाने वालों पर

माँ बकती है
देवर-ससुर को
पिता की गैरहाजिरी में
मारा था जिन्होने लात-घुसों से उसे
उसके भ्रूण को भी

माँ हमें भी बकती है
बहुत बकती है
हमारी बदमाशियों, फिजूलखर्ची
और हमारी गैर जिमेदाराना हरकतों पर
पर
मैं अब बड़ा हो गया हूं
जान गया हूं रहस्य
माँ के गुस्से का
अब नहीं लगता बुरा मुझे
माँ के बकने पर।