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माँ - 1 / समझदार किसिम के लोग / लालित्य ललित

 

थी
माँ
तो
सब था
आज नहीं माँ
तो है सब कुछ
नहीं है
तो वो गुनगुना एहसास
एक भाव
बेटा रोटी गरम-गरम खा
तुझे ठंडी पसंद नहीं
चूरमा बना दूं
अदरक वाली चाय के साथ
आज
नहीं है माँ
तो वह एहसास ही नहीं
होता
कि कोई
थपकी देने वाला
एहसास आपको
हौले से
स्पर्श कर दे या
चमत्कृत कर दे
आपके कहने से पहले ही
सब हो जाए हाजिर
चूरमा, दही भल्ले
गर्म दूध
और भी ना जाने क्या-क्या !
माँ जो कभी
थकती नहीं थी
सुबह से शाम तक
सबकी सुनती
सुनाती
और कभी जी ना
चुराती
माँ
कहां हो माँ
किधर हो माँ
क्यूं चली गई माँ
क्या यूं ही चले जाना है
सबको
क्या माँ ?
मैं भी चला आऊंगा
वहां
जहां माँ है
जहां एक दिन सभी को
होना है
माँ
ओ माँ
जब भी किसी माँ को
देखता हूँ
तो पाता हूँ माँ
उनमें
माँ
का होना ही
बड़ी बात है
यह बात मैं
मैं जानता
समझता हूँ
माँ
तुम को कभी-कभी
महसूस करता हूँ
कि तुम कहीं गई नहीं हो
तुम हो यहीं
अदृश्य रह कर
जीवन की समस्त
हलचलों में व्याप्त हो
सर्वत्र हो
हमारे साथ हो
और
माँ
कभी
अपनों से दूर नहीं होती
कभी नहीं
यह सच है...