मांस की हथेलियों से पीटे ही क्यों
जड़ाऊ कीलों के किवाड़
खुभें ही
रिस आया लहू झुरझुराया मैं
कितनी दुखाती है जगाती हुई यह नींद
पोंछा है खीज कर
फटी कमीज से इतिहास
अक्षरों की छैनियों से तोड़ने
लगा हूं
मेरे और मेरी तलाश के बीच
पसरा हुआ जो एक ठंढ़ा शून्य