मुंह अंधेरे
पौ फ़ट्ते ही उठ कर
पहले
खुद नहाती है
फ़िर नहलाती है
तीन बीसी वर्ष पुराने
पीतल के ठाकुर जी को
जिस के नयन-नक्ष
मिट गए
मां के हाथों
नहाते-नहाते !
मोतियाबिंद उतरी
आंखों के पास ला
ठाकुर जी का मुंह ढूंढ़
लगाती है भोग
और फ़िर
सब को बांटती है प्रशाद
जीत में हांफ़ती हुई सी !
अनुवाद-अंकिता पुरोहित "कागदांश"