कुछ भी नहीं बचा
अमर और अक्षय
हम दोनों के बीच
सांत्वना विश्वास
काल का प्रवाह प्यार
सिर्फ वह कल्लर का खेत है
सदियों का
विशाल और वीरान ।
मां पथराई आंखों से
ऊसर पार
दूर
बंजर की नमी में
ढूंढ़ रही है मुझे
वहीं जहां
फसल काटते छोड़ा था मुझे
पाजेब और करधनी और घुंघराली लटों में
धूसर बदन नंग-धडंग ।
उसे क्या पता
मैं दुर्धर्ष समर में
कहां निकल आया हूं ?
उसने
ढ़ूँढने की ललक में
काटा हर साल खेत
निराया कल्लर
सिझाया चेहरा और बाल
नहीं मिला फिर कभी मैं
उस घास पात में
काल के गाल में
सब मर मिटे
वह पुश्तैनी मकान
दफ्न हो गई उसी में किलकारियां
अनगिनत मिन्नतों भरा
नीम का वह आंगन
कुछ भी नहीं बचा पहचाना
जिसमें मुझे पाए ।
मां ऊसर के पार
बंजर की नमी में
मुझे ढूंढ़ रही है ।
कहां से लाऊं वह सांत्वना
कैसे कहूं कि यह लो
मैं लौट आया हूं
कुछ भी नहीं बचा तुम्हारा सपना
समर में घायल
यह जर्जर होता शरीर है
पथराया मन
ये श्वेत केश
ये झुकी डाल
कुछ नहीं बचा तुम्हारा।
कितना चाहता हूं
इस ढलती वेला में
तुम्हें क्लेष न दूं
राग दूं
अमर आशा दूं
खुशी दूं
स्वर्ग की अभिलाषा दूं
जीवन की सार्थकता की परिभाषा दूं
कितना चाहता हूं
तुम्हारा दिया सब दूं ।
कितना असहाय हो गया हूं मैं
अब तो भरोसा तक नहीं रहा
कौन किसका तर्पण करेगा
कौन किसकी पीड़ा हरेगा
कुछ भी अटक नहीं बचा हमारे बीच ।