मुझे अपने हाथ दो, मुझे अपने हाथ दो, मुझे अपने हाथ दो ।
मैंने रात में देखा था
पहाड़ का नुकीला शिखर
मैंने मैदान देखा था दूर चाँदनी में आप्लावित
और कोई चाँद दृष्टिगत नहीं था ;
मैंने देखा था, अपना सिर घुमाकर
चारों ओर इकट्ठा हुए काले पत्थरों को
और मेरा सारा जीवन खिंच गया था तार की तरह,
आरम्भ और अन्त,
समापन का क्षण
मेरे हाथ ।
निश्चय ही उसे डूबना होगा जो विशाल पत्थरों को वहन करता है ;
इन पत्थरों को मैंने ढोया जितनी देर तक मुझमें सामर्थ्य थी,
इन पत्थरों को मैंने प्यार किया जितनी देर तक मुझमें सामर्थ्य थी,
ये पत्थर मेरा भाग्य ।
मेरी अपनी ही मिट्टी से ज़ख़्मी
मेरी अपनी ही पोशाक से उत्पीड़ित
मेरे अपने ही देवताओं से दण्डित
ये पत्थर ।
मैं जानता हूँ वे नहीं जानते ; फिर भी मैं
जो प्रायः ही चलता रहा हूँ
उस मार्ग पर जो बधिक से बध्य तक
बध्य से दण्ड तक
और दण्ड से एक दूसरे बध्य तक ले जाता है,
अपना मार्ग टोहते हुए
बैंजनी असीम उफ़ान के ऊपर
वापसी की उस रात
जब छोटी घास में
’सर्पकेशी देवियाँ’ सीत्कार करने लगीं --
मैंने सर्पों को देखा, अभिशप्त पीढ़ी के चारों ओर
बँधे हुए गेहुअन सर्पों के साथ भिड़ते
हमारा भाग्य
आवाज़ें पत्थरों में से, नींद में से,
आवाज़ें यहाँ और भी गहरी जहाँ दुनिया अँधेरी हो रही है,
श्रम की स्मृति विस्मृत पैरों के धरती पर होते
आघात की लय में बद्ध है ।
शरीर धँस गए हैं, पूरे नग्न, दूसरे समय की
नींवों में । आँखें
घूर और घूर रही हैं एक चिन्ह की तरफ़
जिसे तुम, जबकि तुम चाहते हो, पहचान नहीं सकते ।
आत्मा
जो तुम्हारी आत्मा हो जाने के लिए संघर्ष करती है ।
यहाँ तक कि ख़ामोशी भी अब तुम्हारी नहीं है
यहाँ जहाँ चक्की के पाट निःशब्द रुक गए हैं ।
रचनाकाल : अक्तूबर 1935