राग रामकली
माखन खात पराए घर कौ ।
नित प्रति सहस मथानी मथिऐ, मेघ-सब्द दधि-माट-घमरकौ ॥
कितने अहिर जियत मेरैं घर, दधी मथि लै बेंचत महि मरकौ ।
नव लख धेनु दुहत हैं नित प्रति, बड़ौ नाम है नंद महर कौ ॥
ताके पूत कहावत हौ तुम, चोरी करत उघारत फरकौ ।
सूर स्याम कितनौ तुम खैहौ, दधि-माखन मेरैं जहँ-तहँ ढरकौ ॥
भावार्थ :-- सूरदास जी कहते हैं-(माता समझाती हैं-) `तुम दूसरे के घर का मक्खन खाते हो ! (तुम्हारे घर में) प्रतिदिन सहस्त्रों मथानियों से दही मथा जाता है, दही के मटको से जो घरघराहट निकलती है, वह मेघगर्जना के समान होती है । कितने ही अहीर मेरे घर जीते (पालन-पोषण पाते) हैं, दही मथकर वे मट्ठे के मटके बेच लेते हैं । व्रजराज श्रीनन्द जी का बड़ा नाम है, उनके यहाँ प्रतिदिन नौ लाख गायें दुही जाती है । उनके तुम पुत्र कहलाते हो और चोरी करके छप्पर उजाड़ते (अपने घर की कंगाली प्रकट करते) हो । श्यामसुन्दर! तुम कितना खाओगे, दही-मक्खन तो मेरे घर जहाँ-तहाँ ढुलकता फिरता है ।'