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माटी का कर्ज़ / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

प्रणहित प्राणोत्सर्ग सदा से अपनी परिपाटी है।
अपने गौरव की गाथा कहती हल्दीघाटी है।।
सौ-सौ स्वर्गों से बढ़कर है भारत भूमि हमारी।
माथे का सिन्दूर देश की पावनतम माटी है।।

जिस माटी में जन्म लिया, जिस माटी में पल पाए।
जिस माटी में खेल-कूद कर गीत प्रीत के गाए।।
समझो उसे न माटी, वह माटी अपनी माता है।
सावधान रहना है उस माटी की लाज न जाए।।

माटी में मिलकर माटी की काया मिट जानी है।
माटी में मिल गई शान, फिर हाथ नहीं आनी है।।
जो न फ़र्ज़ के लिए मरे वह जीवन बस माटी है।
जो माटी का कर्ज़ चुका दे, वही ज़िन्दगानी है।।

जिस माटी से जीवन में अपने रसधार बही है।
जो कुछ अपने पास धरोहर सब जिस माटी की है।।
आज उसी माटी पर संकट के बादल घिर आए।
प्राणों का बलिदान आज वह माटी माँग रही है।।

उठो जवानो! दुश्मन का माटी में मान मिला दो।
किस माटी के बने हुए तुम, यह जग को बतला दो।।
लोहू की कर दो माटी पर न्यौछावर।
ख़ुद मर-मिट कर भारत की माटी का कर्ज़ चुका दो।।