माटी के तन में कंचन की यह लौ!
तप की जो आँच सही,
जगती ने ज्योति लही;
रात अभी उतरी ही थी कि फटी पौ!
श्याम बन सजन आया,
राधिका बनी माया;
करके शृंगार चली सात और नौ!
स्वर्ग चकित है निहार
भू का यह दीप-हार;
यक-यक लौ पर न्योछावर पर, सौ-सौ!
माटी के तन में कंचन की यह लौ!
तप की जो आँच सही,
जगती ने ज्योति लही;
रात अभी उतरी ही थी कि फटी पौ!
श्याम बन सजन आया,
राधिका बनी माया;
करके शृंगार चली सात और नौ!
स्वर्ग चकित है निहार
भू का यह दीप-हार;
यक-यक लौ पर न्योछावर पर, सौ-सौ!