कुछ इच्छाएँ, ख्वाहिशें,
बुनते-धुनते
न जाने हम कब बड़े हो जाते हैं,
और ज़िन्दगी के नए-नए मसले
सामने आकर खड़े हो जाते हैं;
छूट जाती हैं अभिलाषाएँ
कहीं बाएँ-दाएँ
अपने उसी पुराने शहर के
पुराने मकान में
स्कूलों-कॉलेजों के खुले आसमान में
आँखों से उड़कर विलीन हो जाती हैं
लेकिन सपने नहीं बदलते
बदल लेते हैं बस रूप
लक्ष्य हम स्वयं नहीं रहते
बच्चों में समा जाते हैं
और तब हम, हम नहीं रहते
माता-पिता बन जाते हैं!