प्रसंग:
वर्त्तमान काल में पारिवारिक संबंध नए आयाम ले रहे हैं। उसी का एक अत्यन्त चिन्ताजनक चित्र प्रस्तुत है।
लय मइया का गीत के-पचरा
केहू नइखे केहू के कही के दबावत हो मइया।
मइया हो, दुखवा देखि के मन-हीं-में बानी पछतावत हो मइया।
बूढ़ा-बूढ़ी बा लोग लोर गिरावत हो मइया।
मइया हो, गाँव भर थपरी बाटे बजावत हो मइया॥
सासुजी पतोह का नइखी भावत हो मइया।
मइया हो, बबुआ नइखन बाबूजी से बतिआवत हो मइया॥
झगरा ‘भिखारी’ बाड़न गावत हो मइया।
मइया हो, बिदेआ बिनु नइखे खूब कहे आवत हो मइया।
धन कलियुग जी के बाटे बलिहारी॥टेक॥
बेटा के देह पोंछे, बाबू के गारी। सासु भइली हलुकी, पतोह भइली भारी॥
मउगी के मरदा बेसाहे नया सारी। फटही लुगरिया जवाल महतारी॥
माई ना कहे, कहिके ‘बुढ़िया’ पुकारी। सिर पर भइल बा परेत के सवारी॥
अबहूँ से चेतऽ ना त कहत ‘भिखारी’। बदला लेवे के परी हथवा पसारी।