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माता भक्ति / 6 / भिखारी ठाकुर

प्रसंग:

ग्रामीण परिवेश में आधुनिकता के नाम पर पारिवारिक समरसता भंग हो रही है। काम-क्रोध-मद-लोभ के वशीभूत होकर बहुएँ सास को तरह-तरह से तंग कर रही है। बेटा-बाप के व्यवहार बदले-बदले हैं। सम्पत्ति के लिए एक ही माता-पिता से उत्पन्न भाइयों में झगड़े हो रहे हैं। जनकवि अचंभित है कि यह कैसा परिवर्तन है।

वार्तिका:

”आदि माय अन्त गाय, ई ना देखे से भनसारी में जाव“। आदि माय कइसे?

आज त हमनी का पाव भर अन्न खाइले, तब पेचीस वगैरह अनेक प्रकार के उपाधि उठत बा। तवना जगहा मतारी निर्गुन बन के नौ महीना पेट में रखलीं। एह मतारी ले पूर्ण ब्रह्मा परमात्मा दूसर के बा? मतारी निर्गुन बन के नौ महिना पेट में रखलीं, सरगुन हो के पोसन-पालन कइली, चमड़ा नचोड़ि के दूध पिअवली। कुली बन के ढोवले चलली। मेहतरिन बनि के गूह-मूत साफ कइली। धोबिन बनि के गड़तर साफ कइली। एही से मतारी आदि हई।

अन्त गाय कइसे:- कि जब मतारी से दूध छुटेला, तब अन्न के जरूरत लागेला। अन्न होला कइसे। ऊहे गाय के बैल से जोतला-बोआला-पटवला से। अन्त में हिन्दू-मुसलमान के कफन होला कहाँ से। कपास से। कपास बोअला से। गाय का बेटा का जोतला, बोवला, उनुका पटवला से। जब शादी के जरूरत लागेला, तब गाय के गोबर से घर-आँगन के गउरी-गनेश बना के पहिले उनकर पूजा होके तिलक, हरदी कलसा बगैरह विधि होला। बेमार परला पर बैद लोग गाय के दूध बता देला। अबर भइला पर गाय के घीव से पुष्टई बनेला। ओकरा से धातु पुष्ट होला। तब वंश बढ़ेला। अन्त में कहेला का लोग कि अब बाबाजी ना बचिहे, तब गाय-बाछी, दान कइल जाला, बैतरनी पार उतारे के। एही से अंत गाय कहल बा।

चौपाई

राम नाम मनि उर में धरीहऽ। गऊ गरीब साधु से डरीहऽ॥
मातु-पिता-गुरु-विप्र के सेवा। एहिसे ऊपर न दूसर देवा॥
काम-क्रोध-कद-लोभ के छोड़। नाहीं त परि जेहल में गोड़॥
इहे लवटले बाटे जीत। गावत बानी देखल के गीत॥
सहता चाँदी महँगा गांजा। लवटल बा अनपुछल के भांजा॥
जई-गेहूम के एके भाव। लवटल बा अनपुछलके दाव॥
सास के कइली पतोहियो तंग। काहे ना दुनिया होखो बेलंग॥
बाप के देलन बेटा तेयाग। काहे ना लागे जगत में आग॥
हिस्सा कारन भाई काल। भसुर से भावह फुलवली गाल॥
गुरु के चेला कइलन बेमोल। कहे ‘भिखारी’ बजाके ढोल॥
अइसन जगत में भइल अनित, तकला पर लौकत ना हित।