वीर शिरोमणि छत्रसाल थे पौरुष-पुंज प्रतापी।
उनके रणकौशल की गरिमा थी चारों दिशि व्यापी॥
‘‘जिसकी राज्य-व्यवस्था में होती प्रिय प्रजा दुखारी।
वह शासक होता निश्चय ही रौरव का अधिकारी’’॥
रख सन्मुख आदर्श यही सत्ता-संचालन करते।
हित चित से सुत सरिस प्रजा का थे परिपालन करते॥
प्रहरी बन कर स्वयं नगर में फिर कर पहरा देते।
प्रजा जनों के पास पहुँच कर उनकी सुध-बुध लेते॥
भव्य भाल, लोचन-विशाल, सुगठित शरीर अति सुन्दर।
स्फीत वक्ष, आजानु बाहु दिनकर समान द्युति-आकर॥
घूम रहे थे एक दिवस नृप लीन चारु-चिन्तन में।
देख रूप तरुणी विमुग्ध हो उठी एक निज मन में॥
लालायित होकर नरेश के पास त्वरित वह आई।
कामातुर मन पर अपने अधिकार नहीं रख पाई॥
बिसर गया सब ज्ञान, चित्त से कुल की कान उतारी।
बोली हो करबद्ध ‘‘नाथ! मैं हूँ अतीव दुखियारी’’॥
नृप ने उसकी ओर देख कर पूछा देवि बताओ।
किस दुख से हो दुखी कृपा कर मुझे तनिक समझाओ॥
छल में लिपटे वचन कहे तरुणी ने नत कर माथा।
‘‘वचन मुझे दें तो कह सकती हूँ अपनी दुख-गाथा’’॥
सरल हृदय राजा ने उसका भाव नहीं पहचाना।
होगा कोई कष्ट यही निश्छल मन से अनुमाना॥
बोले मुझसे देवि! जहाँ तक सम्भव बन पायेगा।
निश्चय रक्खो, दुःख तुम्हारा दूर किया जायेगा॥
इतना सुन कर भेद भरी गठरी तरुणी ने खोली।
करली प्रबल कटाक्ष विषय-आसक्त हुई वह बोली॥
‘‘हूँ सन्तान-विहीन सताती मुझको काम-पिपासा।
आप सरिस हो पुत्र यही है अन्तर में अभिलाषा’’॥
स्तब्ध रह गये दो क्षण को नृप सुन यह दूषित बानी।
समझ पड़ी कामान्ध हुई नारी की अब नादानी॥
सँभले फिर तत्काल, पदों में तरुणी के नत होकर।
हाथ जोड़ की विनय, मधुर निकले मुख से कोमल स्वर॥
मेरे जैसा पुत्र चाहिये तुम्हें प्राण से प्यारा।
माँ! अबसे यह छत्रसाल ही हुआ सुपुत्र तुम्हारा॥
बेटा कह कर मुझे पुकारो तुम हो मेरी माता।
पूर्ण हुआ लो वचन, आज से सुदृढ़ हुआ यह नाता॥
किया राजमाता के पद से उसे विभूषित भारी।
पाकर ऐसे वीर पुत्र को धन्य हुई महतारी॥