रूक रे बटोही तनि भूमि क नमन कर,
यहीं दानवीर कर्ण गोदी मे खेललकै।
एकरा दुआरी पर देवराज इन्द्र नेॅ भी,
झुकी क याचक बनी दान-मान पैलकै।
एकरा गोदी मेॅ बैठी योगी बली जाह्नवी,
सुरसरि के अहम् क्षण मेॅ मिटैलकै।
सागर मथन करी, चौदहोरतन गही,
देव आ असुर क येॅ दान करी देलकै॥1॥
यही बाबा भोलेनाथ रावणेश महादेव,
कामना पूरन लेली नर-नारी आबै रे।
यही अंगभूमि जहाँ सर पाद आदि कवि,
भव प्रीतानंद दिनकर, रेणु भाबै रे।
विक्रमशीला के ज्ञान दूर-दूर दुनिया मे,
चीन जावा थाइलेंडें घरे घर गाबै रे॥2॥
यही चम्पा-नगरी से चम्पा के सुगंध बहै,
चारों ओर मंद-मंद यशोगान गाबै रे।
यही बंदरगाहोॅ से चलै जे जलयान दूर,
दूर देशें एकरा से सब कुछ पाबै रे।
रेशमोॅ के धरती मे सोना रंग ओॅन उगै,
धरती जे नेहोॅ सेॅ सभै क दुलराबै रे।
रूक रे बटोही यहॉ, शीतल बयार यहाँ,
अतिथि लेॅ प्यार यहॉ मोॅन हरसाबै रे॥3॥