कितने लाख वर्षों की तपस्या के फल से
पृथ्वी-तल पर
खिली है आज यह माधवी
आनंद की यह छवि
युग-युग से ढंकी (चली आ रही) थी
अलक्ष्य के वक्ष के आंचल से
इसी प्रकार सपने से
किसी दूर युगान्तर में,वसन्त कण के
किसी एक कोने में,
(किसी) एक अवसर के मुख पर तनिक सी मुस्कान
खिल उठेगी--
यह साध बनी हुई है
मेरे मन में-- उसके किसी गहरे गोपन (स्थान) में.
१० जनवरी १९१५