(श्री आनन्दशंकर माधवन को पत्र)
ऐ नव वसन्त के पुष्प, प्रकृति के राग दिव्य,
गढ़ते तुम संकल्पों से ही अपना भविष्य।
सम्पूर्ण प्रकृति कर रही तुम्हारा अभिनन्दन,
पीते तुम भुवनकोश का गन्धपेय मादन।
तुम निखिल सत्य के महायाम से एकरूप,
तुम युग के आदि-मध्य, युग के सर्वांग रूप।
सुनहली तुम्हारी किरणों में आलोकवान,
मुस्करा रहा दिग्मण्डल फूलों के समान।
तुम सृष्टि-प्रणव, कालानिग्नरूप से अति कराल,
आबद्ध तुम्हारे आलिंगन में देश-काल।
आत्मा के अनन्तत्व को भर अपने भीतर,
छूते तुम स्वर्ग-शिखर को भी उठकर ऊपर।
तुम नहीं सान्त, परिच्छिन्न, परिधि में ही केन्द्रित
सम्पूर्ण काल में परिव्याप्त तुम प्रथम ध्वनित।
आनन्दरूप बन निकल रहे तुमसे प्रकाश,
जैसे अंकुर से पत्र, पत्र से कुसुम-हास।
सुनता समीर में अमर तुम्हारा सामगान,
तुम अपना परम निदान, नियम अपना विधान।
तुम दूर-दूर से, निकट-निकट से विद्यमान,
निर्धूम हुताशन के समान तुम दीप्तिमान।
कुसुमावकीर्ण वन, गुल्म गहन, नगपति महान,
अम्बर के अलंकार तारागण विभावान।
सब एक अनन्त महासागर के गुणाख्यान,
करते न कभी अनुकूल या कि प्रतिकूल भान।
करते शत तुम्हें प्रणाम नाग, गन्धर्व, अमर,
आदित्य साध्यगण, प्रमथ, रुद्र, वसु, विद्याधर।
हो मूर्तिमान ग्रह, अन्तरिक्ष, युग, संवत्सर,
ऋतु, लव, निमेष, क्षण, याम, पक्ष, चर और अचर।
ऐ अमर पुरुष, तुम विश्वेद, विज्ञानवान,
तुममें ही देवपùिनी गंगा स्यन्दमान।
सोती तुममें ही रात और होता विहान,
तारों के दीप जलाता तुममें आसमान।
खिलते प्रसून तुममें ही गन्धपरागपर्ण,
हैं साथ तुम्हारे नदियाँ वृक्षवितानपूर्ण।
उड़ते तुम पर गैरिक नीलांगकान्ति बादल,
तुममें विद्युन्कुडलमंडित ज्वालामण्डल।
भरता तुममें ही वैनतेय लम्बी उड़ान,
अम्बरवितान को धुन पंखों से वेगवान।
आते तुमसे उन ज्वालामुखियों में उबाल,
धधकाते जिनके महागर्त्त अंगारज्वालं
है खड़ा तुम्हारे दाएँ दिनमणि रश्मिमान,
बाएँ राकाशशि का अनन्त ज्योत्स्नावितान।
हँसता तुममें ही इन्द्रधनुष मननयनहरण,
बहता तुमसे सुगन्ध ले मलय पवन मादन।
तुमसे अभिन्न गिरिऊर्ध्वशृंग रुचिरांगवर्ण
कलमन्द्रमुखर निर्मल निर्झर, द्रुमहरितपर्ण
सिन्दूरारुण उद्यान रम्य, दुर्गम अरण्य,
गम्भीरघोष निस्तल अशान्त अर्णव अगम्य।