मानव हूँ, बस मानव का व्यवहार चाहता हूँ।
मैं इतना-सा ही सब का आभार चाहता हूँ।
मुझे नहीं चाहिए तुम्हारी धन-दौलत का कोष,
मुझे नहीं चाहिए रूप, यौवन मादक बेहोश।
झुक जाये मस्तक यह अपने आप जहाँ जिस ठौर,
उसी जगह पर कुछ अपना अधिकार चाहता हूँ॥1॥
पथ पर तुम न लगाओ ध्वजा, पताका, वंदनवार,
मत बरसाओ फूल, न पहनाओ मुझको ये हार।
मुझे नहीं चाहिए गगनभेदी ये जयजयकार,
मैं बस मूक हृदय का ही सत्कार चाहता हूँ॥2॥
नाव प्राण की फँसी समय की सरिता के मँझधार,
लेकिन है विश्वास किनारों का, वे खेवनहार।
मुझे नहीं चाहिए किसी के डाँड और पतवार,
मैं तो गतिमय लहरों का आधार चाहता हूँ॥3॥
मन्दिर, मसजिद, गिरिजाघर की करो न मुझसे बात,
इनमें बँट कर मानव के हैं रंगे रक्त में हाथ।
मेरे लिए धर्म का कोई और नहीं कुछ अर्थ
मैं केवल मानवता का संसार चाहता हूँ॥4॥